ईश्वर ने इंसान पर अनगिनत उपकार,
अनुगृह एवं कृपाएँ की। उसने जगत के
प्राणियों में इंसान को सर्वश्रेष्ठ
बनाया और उसे सोच-विचार एवं
समझ-बूझ की क्षमता प्रदान की।
इंसान ने समन्दरों पर फतह पाई।
आसमानों को जीत लिया और जमीं के
जर्रे-जर्रे पर अपने जोश-ओ-गुरूर की
दास्तान लिख डाली।
कहीं ऊँचे- ऊँचे महल तामीर किए,
कहीं खामोश गोशे में फूलों की
क्यारियाँ सजा उसे बगीचे की
शक्ल दे डाली। कहीं महलों-मीनारों
का निर्माण कराया तो कहीं कालजयी
भवन बनवा कर वक्त की पेशानी
पर अपनी जीत नक्श कर डाली।
सब कुछ था, फिर क्या कमी थी?
हाँ! कहीं कोईं कमी जरूर थी!
इस कमी का ही परिणाम
था कि मानव मन ने एक दिन
अचानक सोचा, 'वह कौन है?
कहाँ से आया है? और उसे कहाँ
लौट जाना है?'
बस जीवन के प्रति इस नन्ही-सी
चिंता ने ही तो जन्मा अरब
इतिहास के एक कालजयी
विचारक को, जिसने विराट
सत्ता के सापेक्ष, मनुष्य के
अस्तित्व का आकलन कर
उसके लिए जीने की आसान
राह स्पष्ट की। जी हाँ! दुनिया
उस महान चिन्तक को 'मोहम्मद
' के नाम से जानती है। यह वही
'मोहम्मद' थे जिसने इंसान को बताया :-
'जब सूरज लपेट दिया जाएगा
सारे तारे झड़ जाएँगे
जाने जिस्मों से जोड़ दी जाएँगी
समंदर उबल पड़ेंगे
आसमान खींच लिया जाएगा
तब हर जान समझ लेगी
कि वह
(अपने ईश्वर के समक्ष)
क्या लाई है?'
WD
20 अप्रैल 571 ईस्वी. मोहम्मद
की पैदाईश का दिन।
अपने पिता 'अब्दुल्लाह' के इस
दुनिया से कूच कर जाने के बाद
जन्मे इस नन्हे से बालक के
बारे में किसने कल्पना की थी
कि यह विलासिता के शीर्ष पर
मंडराती, शराब-ओ शबाब में खोई,
बर्बरता में अग्रणी रही, और
भोग-विलास को अपना धर्म
समझने वाली कबीलाई अरब
सभ्यता का भविष्य बदलने
वाला देवदूत होगा!
मोहम्मद की पैदाईश, अरब की
सरजमी पर उस समय की
घटना है जब इंसानियत कराह
रही थी। बाप अपनी बच्ची को
(उसकी हिफाजत के डर से)
जिंदा जला देते थे। औरत नुमाइश,
भोग एवं विलास की वस्तु थी।
अनावश्यक तौर पर अरब कबीले
एक-दूसरे से भयानक जंगे कर
लिया करते थे। समूचा अरब बस
लहू का प्यासा था।
जहालत का असली मसला यह
था कि पूरी जिंदगी की चूल अपने
स्थान से हट गई थी। इंसान,
इंसान नहीं रहा था। इंसानियत
का मुकद्दमा अपने अंतिम छोर
पर लटका, ईश्वर की अदालत
में पेश था। इंसानियत स्वयं
के खिलाफ ही गवाही दे चुकी
थी। ऐसे समय मोहम्मद की
पैदाइश 'यदा-यदा ही धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारतं' का साकार
रूप ही जान पड़ती थी।
न तो मसीह (ईसा) की तरह
मोहम्मद को जन्म से ही अपने
नबी होने का अंदाजा था न ही
वे मूसा की तरह बेशुमार
चमत्कारों के धनी थे। वे जागीर
या सल्तनत देकर भी जमीं पर
भेजे नहीं गए थे, फिर भी लोगो में
मकबूल थे। लोग प्रेम से इन्हें
'सादिक' (सच्चा) या 'अमीन'
(अमानतदार) कह कर बुलाते थे।
निर्जन रेगिस्तान के प्रतिकूल
एवं अभावग्रस्त जीवन में भी
इनका चेहरा एक अपूर्व तेज से
दमकता रहता था। आँखों में
बाँध लेने वाली कशिश थी।
वह रिश्तों का सम्मान करते,
लोगों का बोझ हल्का करते,
उनकी जरूरतें पूरी करते,
आतिथ्य सत्कार करते।
अच्छे कामों में लोगों की मदद
करते एवं मामूली एवं जरूरत
भर के खाने पर संतोष करते
थे। सही मायनों में आप उदारता
एवं पवित्रता के प्रतीक थे।
मोहम्मद को अपने दोस्तों
का साथ बिलकुल नहीं भाता
था। अपने खाली वक्त में वह
'गारे-हीरा' में जाकर 'ईश-चिंतन'
में लीन हो जाते थे। वे चाहते तो
काबे के अंधविश्वासों से जीवन
यापन कर सकते थे। किन्तु
आपने व्यापार को आजीविका
का साधन बनाया। 25 वर्ष की
अल्पायु में 40 वर्ष की महिला
'हजरत-खदीजा' से विवाह कर
उनके तिजारती सफर को अंजाम देते रहे।
एकबार गार में बैठे-बैठे आपके
कानों में स्वर गूँजे :
'पढ़ो ऐ मोहम्मद!
अपने रब के नाम से
जिसने इंसान को खून की नाजुक
बूँद से बनाया
जिसने इंसान को
वह सिखाया
जिसने इंसान को वह सिखलाया जो
वह नहीं जानता था...'
यह वही फरिश्ता था जिसने ईश्वर
का सन्देश ला कर, ईसा, और
इससे पहले मूसा को सुना, मानव
जाति के लिए नए व साफ-सुथरे
रास्ते मुहैय्या करवाए थे।
बस अपने रब के कलाम को
सुनकर, उसके पैगाम को सुनाते ही
'मोहम्मद'
अब पैगम्बर हो गए थे।
'ईश्वर के तरफ से फरिश्ते का
आना' भले ही आज के दौर में
हमें एक अविश्वसनीय बात
लग सकती है, किन्तु उस समय
यह पैगम्बर साहब के लिए बड़ी
कड़ी परीक्षा की घड़ी होती थी।
पैगम्बरों के पास फरिश्तों का
आना एक कठिन शारीरिक एवं
मानसिक स्थिति की अवस्था होती थी।
मानव जाति के कल्याण के लिए
ऐसी घड़ियाँ आपने अपने जीवन
के 23 सालों तक भोगी। साथ
में इनका संकलन कुरान के रूप
में कर मानवता के विकास का
बेहतरीन दस्तावेज संजोया।
उनके पास ना तो कोई दौलत थी
और न सरमाया। ना सोने-चाँदी
के खजाने थे न ही लाल व जवाहारात
के ढेर। न तो सुन्दर बाग बगीचे थे,
न ही शाही महल।
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